गुरुवार, 24 मार्च 2016

कामनाओं का छल

जीवन में अंततः क्या चाहिए?  नि: संदेह मन की शांति। आनंद,  संतुष्टि,  पूर्णता और सुख जैसे शब्द भी मनुष्य की आकांक्षाओं को प्रकट करते हैं। मनुष्य को लगता है कि जो चाहता है वह प्राप्त हो जाएगा तो सुख उत्पन्न होगा।  किंतु कामनाओं का कोई अंत नहीं। एक पूरी होती है तो दूसरी प्रबल होने लगती है।  सुख का संबंध मन से है किंतु कामनाओं का नहीं। मनुष्य की कामनाएं मन से नहीं विकारों से उपजती है। इनका संबंध काम,  क्रोध,  लोभ, मोह, अहंकार से होता है।  कामनाएं पराए दूसरों से प्रति स्पर्धा ईर्ष्या का परिणाम होती है।

विकारों,  ईर्ष्या और हठ से जिस की उत्पत्ति हुई है वह कामनाएं सुख कैसे दे सकती हैं।  इसके विपरीत वे विकारों, ईर्ष्या को बढ़ावा देने वाली सिद्ध होती है।  एक विकार से दूसरे विकार उत्प्रेरित होता है।  लोभ है तो अहंकार बढेगा।  अहंकार है तो क्रोध बढेगा। काम है तो मोह बढेगा। मोह है तो लोभ बढेगा। सारे विकारों का अंतर्निहित संबंध मनुष्य को अपना बंदी बना कर रखता है। ऐसा मनुष्य असहाय और दुखी रहता है।

उसके जीवन में कभी संतुष्टि और शांति अपना वास नहीं बना पाती ।  मनुष्य ने कामनाओं को प्रगति से जोड़ दिया है।  यह सबसे बड़ा भ्रम है जो जीवन में कभी स्थिरता नहीं आने देता। प्रगति करने,  उपलब्धियां अर्जित करने की भावना होनी चाहिए और इसके लिए हर पल प्रयासरत भी रहना चाहिए।  मन में बैठा ईश्वर सदैव मनुष्य को अपने गुणों के अनुरूप चलाना चाहता है।  वह दयालु है,  वह परोपकारी है, रक्षक है, समदृष्टिवाला है,  निडर है, सत्य और ज्ञान का स्त्रोत है। इन गुणों का अनुसरण करना ही ईश्वर के अनुकूल आचरण करना है।

जब मनुष्य के कार्य इन गुणों से अभिप्रेरित होंगे तो निश्चय ही उसे जीवन में सुख और आनंद की प्राप्ति होगी और सारी भटकन समाप्त हो जाएगी।  ऐसा इसलिए क्योंकि ईश्वर आनंद स्वरुप है।  वह इसलिए आनंद स्वरुप है क्योंकि इन गुणों का सागर है। मनुष्य के अंर्तमन में बैठकर वह मनुष्य को इस राह पर लाना चाहता है, किंतु विकार मनुष्य के ज्ञान व चेतना का हरण कर लेते हैं।  मनुष्य अपने मन की सुनने में असमर्थ हो जाता है।  अंतर्चेतना को जाग्रत करना ही मनुष्य का धर्म और जीवन का लक्ष्य है।  ऐसा न होने पर मनुष्य जीवन भर कामनाओं के हाथों छला जाता रहेगा।

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